हम सभी अपने जीवन में कुछ न कुछ बनना चाहते हैं. कोई Doctor तो कोई engineer, officer, teacher या अपनी interest का कोई और चीज बनना चाहता है.
आप सोच रहे होंगे क्या ये हमारे हाथ में है कि हम क्या बनें? हमारी जिन्दगी कैसा आकार ले? जी हाँ यह हमारे ही हाथ में है, न केवल हाथ में, बल्कि विश्वास में है कि हम क्या बनें? व कैसी जिन्दगी जिएं.
Sandeep Maheshwari कहते हैं कि जो हम आज सोचते आज नहीं तो कल वो बन जाते हैं. हमारी कल की जिन्दगी आज पर ही निर्भर करती है. यह हमारे भावों, विचारों, व् विश्वासों पर निर्भर करता है कि हम अपना जीवन किस प्रकार का बनायें. हम चाहे तो दीपक बनकर जहाँ हैं वहां उजियारा फैलाएं, यदि ऐसा न बन सके तो कम से कम जो लोग दीप रूप हैं उन्हें अपने जीवन का आदर्श बनाकर, उनकी वाणी व् विवेक को अपने भीतर जगाने बाला दीप तो बनें. दीपक न सही, तो उसे प्रतिबिम्बित करने बाला दर्पण तो बनें.
यह जीवन हर दिन, हर पल हमें यह अवसर देता है कि हम जागकर, विवेक के प्रकाश में स्वयं की शक्तियों का जागरण करें, उनका सदुपयोग करें. परन्तु हमारे बिच अधिकांश लोग ऐसा नहीं कर पाते हैं, क्यों? क्या कारण है कि हम न दीपक बन पाते हैं और न ही दर्पण ? कारण है - हमारी अनुकरण करने की नकलची बने रहने की आदत.
हममें से अधिकांश लोग अपने जीवन की हर छोटी-मोटी बात के लये औरों पर निर्भर रहते हैं. दूसरों की सुनते हैं, उनकी ही मानते हैं. हमारे संगी-साथी यदि हमारी तारीफ कर दें, तो हर बात ठीक हो जाती है, सही प्रमाणित हो जाती है, किन्तु वे यदि हमारी निंदा, आलोचना कर दें, तो हम तुरंत प्रभावित हो जाते हैं. हम अपने आत्मविश्वास से च्युत हो जाते हैं. हमारा मन खुद पर भरोसा नहीं करता है, वह दुसरो से प्रमाणित बनकर जीने का आदि हो चूका है. ऐसे में अपना विवेक खो देना स्वाभाविक-सी बात है.
आइये पढ़ते हैं एक कहानी.......
एक राजा ने एक भव्य महल का निर्माण कराया. महल में उत्कृष्ट भीती चित्र बनाने के लिए दो कारीगरों को चुनकर उन्हें काम पर लगाया गया. एक चित्रकार ने भीती चित्र बनाने के रंग-लेप-सामग्री मंगवाई. जबकि दुसरे ने कुछ भी नहीं.
चित्र पूर्ण हो जाने पर प्रथम चित्रकार ने अपनी भीती कला को राजा के समक्ष उद्घाटित किया. उसका सौन्दर्य, साज-सज्जा व् कला की विलक्षणता को देखकर राजा अभिभूत हो गया. उसके मुख से वाह-वाह निकल रहा था, तभी उसे दुसरे चित्रकार की स्मृति हो आई. राजा ने उसकी ओर अभिमुख होते हुए उसकी कला को देखने की इच्छा जाहिर की, परन्तु ये क्या? सामने वाली दिवार पर तो कुछ भी चित्रित नहीं किया हुआ था. राजा व् अन्य दरबारीगण उस चित्रकार के प्रति झल्लाहट, रोष व् उलाहना से भर ही रही थी कि तभी चित्रकार ने उस विशाल महल को दो भागों में बाँटने बाले परदे को निचे गिरा दिया.
सारी सभा स्तम्भ व् भौचक्की रह गई, यह देखकर कि सामने दीवान पर अंकित चित्र जितना सुन्दर था. उससे भी अधक सुन्दर उसका प्रतिबिम्ब इस दिवार पर दिखलाई पड़ रहा था.
हुआ यह था कि पुरे छह महीने में इस चित्रकार ने अपनी दिवार को घिस-घिस कर आईना बना डाला था. उसने किसी चित्र का निर्माण तो नहीं किया, परन्तु चित्र को प्रतिबिंबित करने वाला आईना जरूर निर्मित कर दिया. दिवार को दर्पण बना दिया. जगमगाती रौशनी में नवनिर्मित चित्र से भी अधिक सुन्दर व् भव्य उसके प्रतिबिम्ब को देखकर सारी सभा वाह-वाह कह उठी. कहना न होगा की राजा ने प्रशंसा करते हुए उस आईना बनाने वाले चित्रकार के गले में अपनी कंठमाला डालकर उसकी कला को सम्मानित किया, पुरस्कृत किया.
इस कहानी से यही सिख मिलती है कि अगर दीप न बन सको तो कम से कम उसको प्रतिबिंबित करने बाला दर्पण तो बनिए.
हम अपनी क्षमताओं व् योग्ताओं को जानें, उन्हें दक्ष बनायें, उनको सर्वजन हिताय उपयोगी बनाने एवम् अपनी योग्यताओं को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में समर्पित कर स्वयं साक्षी मात्र बन जाएँ.